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दान

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यदङ्ग दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि। तवेत्तत्सत्यमङ्गिर: ।। ऋ.१.१.२.१ ।।

हे मित्र (परमात्मा) ! यह निश्चय ही तेरा सत्य व्रत है कि तू निष्कामभाव से श्रेष्ठ पदार्थों के देने वाले का कल्याण करता है।

जो दूसरों की आवश्यकताओं को निष्कामभाव से पूरा करता है, निश्चय ही ईश्वर भी उसकी आवश्यकताओं को उत्तमता से पूरा करता है।


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